सब मिल एक पेड़ को लेलें, आओ पेड़ लगाना खेलें

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 सब मिल एक पेड़ को लेलें,

आओ  पेड़  लगाना खेलें।

             ०-- बाबूलाल दाहिया

*जैव विविधता और कृषि क्षेत्र में प्रकृति प्रेमी आदरणीय दाहिया जी का विशेष योगदान रहा है। कृषि,खाद्य-बीज, जैव विविधता संवर्धन संरक्षण में आपके योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने आपको पद्मश्री से विभूषित किया है। आपके लेख पारम्परिक,क्षेत्रीय बोली में,प्राकृतिक ज्ञान बहुत सारगर्भित और जानकारी प्रद होते हैं।*

          इन दिनों पेड़ लगाने का खेल खूब खेला जाता है। जिसे आप हर शहर हर गाँव मे देख सकते है।

        क्यों कि पेड़ लगाना दो प्रकार का होता है।

       1-- वास्तविक पेड़ लगाना ।

      2 -- पेड़ लगाने का खेल खेलना।

                  वास्तनिक पेड़ लगाने वाला ब्यक्ति पहले अपनी  छोटी सी बारी "बाटिका" में जिस किस्म के पौधे को लगाना हुआ उसके  बीज को बोता है  और बाद में जब पर्याप्त वर्षा हो चुकी होती है तब उस पेड़ को बिना किसी तामझाम के जरूरत भर का गडढा खोद रोपाई कर तुरन्त बाड़ लगा देता है। 

          फिर  तीन चार साल तक आवश्यकता अनुसार सिचाई ,निराई गुड़ाई और बारी "बाड़" लगबाई आदि तरह तरह के काम करता रहता है।  

          उसके पौधे सत प्रतिसत लग भी जाते है । क्यों कि उसके साथ 3--4 साल तक उसका एक अदद दिल और दो अदद फुर्सत के हाथ भी काम में ततपर रहते है। 

      यदि कही कोई पौधा सूखा भी तो तुरन्त दूसरा बदल दिया। उसके इस काम में कैमरे प्रेस रिपोर्टर की भी जरूरत नही पड़ती।

   पर दूसरे प्रकार के पौधा रोपण में बड़े तामझाम की जरूरत होती है। कभी कभी तो सरकारी अमला भी इसी एक सूत्रीय कार्यक्रम में ही नजर आता है।

लक्ष और तिथि पहले से निर्धारित होती है। पानी गिरे चाहे सूखा हो उस दिन पेड़ लगेगें ही।  

    इसके लिए महीनों पहले से श्रमिक गड्ढा खोदना शुरू कर देते है। निर्धारित दिन को लोग नियत स्थान पर  पहुच जाते है और दूसरे द्वारा खोदे खोदाये गड्ढे में दूसरे के द्वारा  ही ढो कर लाये गये पौधे को जमीन में रोप देते है । 

       यह रोपाई कभी एकल तो कभी समूह के साथ भी होती है ।पर रोपते समय रोपने वालो की नजर धरती और पेड़ के बजाय  हमेशा कैमरे की तरफ ही रहती है। 

         क्यों कि उनका अभिष्ट पेड़ लगाना नही बल्कि पेड़ लगाने का चित्र होता है।  पेड़ तो बेचारा नस्वर है । वह दो चार दिन में भी सूख सकता है ।  हो सकता है लगाने के बाद ही कोई बकरी अपने भूख का निबाला बना सकती है। 

       किंतु कैमरे में कैद चित्र उन्हें पीढ़ियों तक  नेक इंशान का प्रमाण देता रह सकता है । 

      खुदा न खास्ता यदि कैमरे का फ्लेस न चमका तो फिर पेड़ लगाने वाले को कई-कई बार लगाने का उपक्रम करना पड़ता है। उनका यह काम आज कल बहु उद्देश्यीय यंत्र मोबाइल ने बहुत सरल बना दिया है।

          कहते है  साँपिन एक बार अंडे देकर दोबारा यह देखने नही आती कि अण्डे से कितने बच्चे निकले और कितने सलामत है ? 

       इसी तरह इस पद्ध्यति से  पेड़ लगवाने वालो को एक दिन केआंकड़े चाहिए होते है कि कितने पेड़ लगे ?  उन्हें दोबारा यह जानने की जरूरत नही होती कि जेठ की तपी दोपहर झेल कर अगले अषाढ़ की वर्षा का आनंद लेने के लिए उनमे कितने पौधे बचे और कितनो के ऊपर रामजस गड़रिये की बकरियों ने कृपा कर दी या उदरस्त कर ली ? 

       वैसे थोक के भाव लगाए गए  पौधा  जमीन में तभी लगते है जब जमीन कम से कम वर्षा के पानी से एक बालिन्स गीली हो चुकी हो।

    पर यहां पेड़ लगाने से अधिक पेड़ लगाने की फ़ोटो महत्यपूर्ण होती है। इसलिए पेड़ लगाने का खेल चालू है।

आइये बहती गंगा में हाथ धोया जाय और पेड़ लगाया जाय।

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