फेमली किसान बनाना वक्त का तकाजा

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 फेमली किसान बनाना वक्त का तकाजा 


               

  यदि विकसित मनुष्य को हम 1 करोड़ वर्ष का मान लें तो 99 लाख 90 हजार वर्ष वह बिना खेती के, ही रहा।  खेती और पशु पालन का इतिहास पिछले 10 हजार वर्ष के इधर का ही है एवं ब्यवस्थित खेती तो मात्र 28 सौ वर्ष के आस पास से जब मनुष्य ने लौह अयस्क की खोज कर ली।

              क्योकि पुरातत्व में जितने भी मनुष्य के प्रागैतिहासिक काल के पुरावशेष हैं वह सब  नदियों के किनारे बसने के है। लौह की खोज के पहले वह मैदान में कुआँ नही खोद सकता था? इसलिए नदियों के किनारे रहता और उन्हीं का पानी पीता था।

                इसमे भी कोई दूसरी राय नही कि जितने भी पालतू पशु हैं , जितने भी अनाज है ,उन्हें जंगल से खोज कर लाने वाले हमारे कृषक पूर्वज ही है।  क्योकि जिन लोमड़ी, लकड़बग्घा शियार आदि को उनने पालतू नही बनाया उन्हें कोई बैज्ञानिक भी नही बना पाए और वह आज भी जंगल मे विचरण करते हैं। 

              पर मजे की बात तो यह है कि उन पशुओ, उन अनाजो की एक भी पुरखे पुरखिने अब उस जंगल मे नही हैं जिन्हें हमारे कृषक पूर्वजो ने खोजा था। जो कुछ हैं वह किसानों के पास ही बचे हैं इसलिए उनका बचाना भी जरूरी है।

           पर मैदान में बसने और कुओं का पानी पीकर लौह अयस्क के उपयोग से न सिर्फ तरह - तरह के उपकरण बने जिससे लघु उद्योग ब्यापार में तरक्की हुई ,बल्कि लकड़ी के हल में लौह फाल लग जाने के कारण खेती की भी उन्नत हुई एवं हमारी निर्भरता जंगल के फल, फूल, कन्द आदि के बजाय कृषि पर हो गई।

           लेकिन आज हम जिस कृषि की बात करते हैं वह हमारे पुरखो की कृषि नही बल्कि 1966 के पश्चात आई हरित क्रांति की कृषि है। यह ऐसी कृषि है जो देश की जीडीपी तो खूब बढ़ाती है ? क्यो कि एक साथ 7-8 प्रकार के अलग-अलग सेठों को खुशहाल करती है। उधर हरा भरा खेत देख कर सभी की तबियत भी मस्त कर देती है।  किन्तु जब आय ब्यय का हिसाब किया जाय तो किसान के हिस्से में उस अनुपात में लाभ उतना ही आता है जितना डेयरी की 10-12 लीटर दूध देने वाली भैस  के  पडेरु के हिस्से में दूध।

                  लेकिन जो उपभोक्ता उस अनाज को खा रहे है दर असल वह खाने लायक बचा ही नही ? क्यो कि उसमे उनके पास आते-आते क्रमशः पहले रसायनिक खाद, फिर कीट नाशक, फिर नीदा नाशक, आदि कई तरह का जहर शामिल हो चुका होता है। 

         जो सब्जियां बाजार से खरीद कर खाते है उनमे यह सब रसायन तो पड़े ही हैं किन्तु हर हप्ते वह अलग से भी रसायन स्नान कर के आप के पास तक आती है।

           उधर सिंचाई बांधों वाले क्षेत्र में गर्मी की जायद फसल मूग के हरे भरे खेत को किस प्रकार हर साल रसायन डाल उसको सुखाकर हारबेष्टिग योग बनाया जाता है? यह किसी से छिपा नही।

             अस्तु जरूरी है कि जिस तरह लोग अपना फेमली डाक्टर बनाते है उसी तरह हर उपभोक्ता अपना एक फेमली किसान भी बनाएं जो आप को रसायन रहित शुद्ध अनाज और विशुद्ध सब्जी दे सके। यकीन मानिए यदि आप ने फेमली किसान बना लिया तो फिर फेमली डॉक्टर की जरूरत कम ही पड़ेगी।

               किन्तु फिर भी झूर शंख नही बजेगा। उसके लिए कुछ अतिरिक्त ब्यय करना पड़ेगा। क्यो कि  उस फेमली किसान के भी मुँह पेट है, बाल बच्चे हैं और प्रतिष्ठा रक्षक जरूरतें भी।

              हरित क्रांति आने के पहले हर कर्मचारी, हर उपभोक्ता  अपनी आमदनी का 50% भोजन में ही खर्च करता था। और तब हम कृषकों के पूर्वज उन्हें विशुद्ध अनाज विशुद्ध सब्जियां देते थे। पर आज जब वह उपभोक्ता अपनी आमदनी के 5% में ही काम चला रहा है तो  कृषक उसे कितना रसायन युक्त अनाज सब्जी दे रहे है? सब कुछ सामने है।

               इसलिए यदि रसायन रहित विशुद्ध अनाज खाना है तो बीच का रास्ता अपनाना होगा और वह रास्ता होगा अपनी आमदनी का  5% के बजाय 15 % भोजन में खर्च करना। जिससे किसान भी खुस रहे और उपभोक्ता भी।         

  ० बाबूलाल दाहिया   9981162564

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