कतिया समाज की कुल देवी माता कत्त्यायनि छठ के दिन होती है विशेष पूजा,परिवार सहित करते हैं पारंपरिक देवी पूजन

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कतिया समाज की कुल देवी माता कत्त्यायनि

छठ के दिन होती है विशेष पूजा,परिवार सहित करते हैं पारंपरिक देवी पूजन
छठ के बाद नवमीं देवदशहरे तक अलग अलग पूजा अनुष्ठान का विधान



अनिल भवरे संपादक

प्रत्येक समाज के अपने रीति रिवाज और परंपराएं हुआ करते हैं। रीति रिवाज और परंपराओं को पीढ़ी दर पीढ़ी स्वजनों के मन मस्तिष्क पर गहरी छाप छोड़ने के लिए निरंतरता की आवश्यकता पड़ी। समाज के बड़े बुजुर्गों ने अपनी दैनिक दिनचर्या के साथ दिनविशेष में विशेष पूजा अनुष्ठान कर अपनी परंपराओं को आने वाली पीढ़ी में ट्रांसफर करने का कार्य किया। जिन रीति-रिवाजों और परंपराओं को पीढ़ी दर पीढ़ी अपना दी गई वह आज भी जीवंत हैं और समय के साथ बदलते परिवेश में जिस समाज या परिवार के लोगों ने अपनी परंपराओं को स्वीकार नहीं किया वह परंपराएं विलुप्त होती चली गई। हमारी दैनिक दिनचर्या हमारे संस्कार हमारी पारिवारिक सामाजिक और व्यक्तिगत मान्यताएं समय के साथ बदलती चली गई। इस पर एक बड़ा लेख लिखा जा सकता है फिलहाल इतना ही कि जो पौधे जड़ों से जुड़े होते हैं वह बड़े वटवृक्ष बनते हैं और जिनकी जड़ें गहराई में नहीं होती वह समय के साथ खत्म होते जाते हैं।

पूर्वजों ने परिस्थितियों के साथ नहीं किया समझौता -

हमारे संस्कार हमारी रीति रिवाज हमारी परंपराएं ही हमारे समाज को जीवंतता प्रदान करती है इन्हीं की वजह से हमारा अस्तित्व कायम है किसी कवि ने कहा था
कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी।
सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-ज़माँ हमारा।।

कतिया समाज का इतिहास भी यही कहता है। हमारे पूर्वजों ने हमारी धार्मिक परंपराओं और रीति-रिवाजों को जीवंत रखने के लिए परिस्थितियों के साथ समझौता नहीं किया। जिस समय बड़े-बड़े राजघराने के राजा महाराजाओं ने आताताइयों के आक्रमणों के आगे घुटने टेक दिए। उनके उनके द्वारा किये गए सांस्कृतिक प्रहारों के आगे अपनी सनातनी संस्कृति को त्यगने को मजबूर हुए। ऐसी विपरीत परिस्थितयों में भी हमारे पूर्वजों को कोई विधर्मी डिगा न सका और हम आज भी अपनी सनातनी संस्कृति, अपने रीतिरिवाजों, अपनी कुल परमपराओं का निर्वहन कर पा रहे हैं यह हमारे लिए गौरव का विषय है।

अपने गुण कर्म और स्वभाव के कारण गौत्रों अलग-

वीर आखा जी वीर भाना जी के वंशज हम अपने गुण कर्म और स्वभाव के कारण भले ही अलग अलग गौत्रों के हैं। भले ही समय परिस्थितियों के कारण कि हम नव देवियों के स्वरूपों को अलग अलग पूजने लगे।
लेकिन हमारी कुलदेवी माता कात्यायनी ही है। यह सब जानते हैं कि खेड़ापति माता पूजे बगैर हमारे विवाह नहीं होते। घर परिवार और विवाह निर्विघ्न सम्पन्न कराने घर में सत्तीमाता न बनाएं और विवाह सम्पन्न करने के बाद उनका ससम्मान विसर्जन न करें तो विवाह की रस्में अधूरी रहती हैं। कोई बिजासनी को अब अपनी कुलदेवी मानता है तो भवरे परिवार सहित कुछ अन्य कतिया गौत्रों के लोग झंडे वाली माता को कुल देवी मानते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि वीर होने के नाते हमारी कुल देवी कात्यायनी ही है जिसे हम अलग अलग स्वरूप में पूजते रहे हैं। जिस तरह नवरात्रि में नौ देवियों के अलग-अलग स्वरूपों की पूजा होती है वैसे ही संपूर्ण कतिया समाज की अधिष्ठात्री देवी मां कात्यानी की हम सबको विधि विधान से नवरात्रि के छठे दिन पूजन करना चाहिए। बाकी सभी परिवारों की कुल देवियां भी पूजनीय है जो उनके स्थानीय नाम के साथ जानी जाती हैं।पूजन विधान का यह क्रम छठ से माँ कत्त्यायनि के पूजन के बाद नवमीं और दशहरे तक चलता है।

सामूहिक एकता के लिए आवश्यक-

माता कत्त्यायनि की पूजा कतिया समाज को सामूहिक एकता के लिए आवश्यक है। हर समय अलग विचारों और मान्यताओं के लोगों ने अपनी ढफली अपना राग अलापा है। ऐसे में कतिया गौरव परिवार की पहल को भले ही कोई न मानें लेकिन अपने कुल गौत्र और समाज की परम्पराओं को शास्वत रखने आगामी पीढ़ियों को आदर्श संस्कारवान और पारिवारिक कुटुंब परमपराओं निर्वहन करने के लिए यह आवश्यक है।

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