एक दिवस परम्परागत देसी धान का भी हो
०--बाबूलाल दाहिया
आज विश्व बाघ दिवस था। धरती तो अरबो वर्षों से है और मनुष्य भी करोड़ो वर्ष से । पर इस औद्योगिक क्रांति ने एक दो शताब्दी में ही क्या गुल खिला दिया कि , हमे हर माह कोई न कोई दिवस मनाकर उसके अतीत का स्मरण कराना पड़ रहा है ?
मुझे 50 के दसक का अभी तक स्मरण है जब हमारे गाँव के पास के जंगल में कई बाघ बाघिन हुआ करते थे। गर्मी के दिनों में बच्चों समेत बाघिन गाँव में आजाती और घर के बाहर बैठे जानवरो को निशाना बनाती।
यदि हमारे गाय बैल जंगल से चर कर न लौटते तो पिता जी और बड़े भइया किसी अनहोनी घटना से बिचलित से दिखने लगते थे।
दूसरे दिन मुहल्ले के 8 --10 लोग समूह बना कुल्हारियो से लैस हो कर खोज करने जाते । यदि गिद्ध का समूह आकास में मंडराता दिखे तो उसका अर्थ था कि बाघ ने गाय बैल को खा लिया है। फिर खोजने पर तसदीग के लिए लास भी किसी झाड़ी में मिल जाती थी। जंगल से न लौटने वाले 5 प्रतिसत पशु ही जीवित मिलते थे। शेष बाघ का निवाला बन जाते।
नागौद नरेश अक्सर हाका करवाते और एक दो बाघों क शिकार करते रहते। कहते है कि उनने अपने जीवन काल में 350 से भी अधिक बाघों का शिकार किया था । इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि हर जंगल में कितने बाघ रहे होंगे?
पर अब साठ साल बाद ही ऐसा जमाना आगया कि बाघों के लिए अभ्यारण बनाना पड़ रहा है। किन्तु किसी संकटापन्न जीव को बिरासत समझ कर बचाना बुरा भी नही है। बल्कि अच्छी पहल है। क्योकि वह देश की अमूल्य धरोहर है।
ऐसा लगता है कि इसी तरह एक अनाज को भी
संकटापन्न घोषित करके बचाने की जरूरत है। वह है परम्परागत देसी धान।
1965 तक देश में इस देसी धान की 110,000 प्रजातियां मौजूद थी। अकेले अविभाजित मध्यप्रदेश में ही डा .राधेलाल जी रिछरिया ने 22,800 प्रजातियां चिन्हित किया था जो अब देश में लगभग 3 -4 हजार ही शेष है पर mp और छ.ग. में यदि 800 ही मिल जाय तो वही बहुत है।
कोई धान प्रथम वर्ष 80-85 प्रतिसत दूसरे वर्ध 25-30 प्रतिसत ही जमती है और तीसरे वर्ष बिलकुल नही जमती ।
इसलिए सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि पिछले 10 हजार वर्ष में वह कितनी बड़ी प्रतिष्पर्धा झेल कर जीवित रही होगी ?
धान एक ऐसा अनाज है जिससे मनुष्य की 40 प्रतिसत भोजन की आपूर्ति होती है । और यह समुद्र के किनारे से लेकर पहाड़ो तक में उगाई जाती है। इसलिए सिर्फ 50 वर्ष में ही सीधे एक लाख प्रजाति का समाप्त होजाना किसी राष्ट्रीय क्षति से कम नही है।
क्यों कि विलुप्तता में अकेले धान भर नही गई बल्कि उसके साथ उसके वे सारे गुण धर्म भी चले गए जो उसने यहां की परिस्थितिकी में हजारो साल रच बस कर अपने गुण सूत्रों में रोग व सूखा आदि से लड़ने की क्षमता के रूप में विकसित किया था।