हवा हुआ स्थानीय प्रत्याशी का मुद्दा-
भोजपुर से 5 वीं बार चुनाव लड़ रहे भाजपा के सुरेंद्र पटवा के सामने कांग्रेस ने राजकुमार पटेल को उतारा।
सुरेंद्र पटवा राजकुमार पटेल |
सुषमा को वाकओवर देने से चर्चित हुए थे पटेल-
राजकुमार पटेल 2009 में उसे समय चर्चा में आए थे जब उन्होंने सुषमा स्वराज के सामने कांग्रेस से चुनाव लड़ा था। पटेल को पार्टी में बड़ी जिम्मेदारी सौंप गई थी। अधिकांश विधायकों के नामांकन भरवाने से लेकर चुनाव जिताने की रणनीति बनाने जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी वही निभाते रहे थे। उस समय कांग्रेस में उनका बड़ा कद था।लेकिन जब सुषमा स्वराज के सामने सांसद का चुनाव लड़ने की जिम्मेदारी पार्टी ने दी थी। तब इतने अनुभवी होने के बाद भी पार्टी से बी फार्म न भरने के कारण एक तरह से सुषमा स्वराज को वाकओवर मिल गया था। यह चूक थी या समपर्ण,उस समय यह बड़ा चर्च का विषय बना था। इसके बाद उन्हें पार्टी से 6 साल के लिए निष्कासित कर दिया गया था।हालांकि पटेल ने अपने बेगुनाही के सबूत कांग्रेस शीर्ष नेताओं से लेकर हाईकोर्ट तक दिए। लेकिन बात नही बनी। तब से अब तक वे राजनैतिक बनवास ही काट रहे थे।उस समय पटेल का नामंकन रद्द होना भाजपा के लिए संजीवनी बना था। वह अपनी परम्परागत सीट छोड़ कर भोजपुर से चुनाव मैदान में हैं।
समाप्त हुआ बनवास 14 वर्ष बाद हुई वापसी-
जिस तरह त्रेता युग में प्रभु श्रीराम को 14 वरसों का बनवास भोगने पड़ा था। उसी तरह 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी द्वारा अधिकृत उम्मीदवार बनाए जाने के बाद भी राजकुमार पटेल ने नामांकन पत्र के साथ पार्टी का बी फॉर्म जमा नहीं किया था। जिसके चलते उन्हें पार्टी से 6 साल के लिए बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। पार्टी ने न केवल राजकुमार पटेल को निष्काषित किया बल्कि 14 वर्षों तक उन्हें कोई बड़ी जिम्मेदारी नहीं सौंपी। हालांकि अब भोजपुर से उम्मीदवार बनाए जाने के बाद श्रीराम की तरह राजकुमार का भी राजनीतिक वनवास समाप्त हो गया है।
हवा हुआ स्थानीय का मुद्दा-
सुरेंद्र पटवा भी बाहरी ही हैं। 1990 में भाजपा ने पूर्वमुख्यमंत्री सुंदरलाल की मनावर से पैरालेंडिंग कराई थी। सुरेंद्र ने श्रीपटवा की विरासत को आगे बढ़ाया। जहां भाजपा प्रत्याशी सुरेंद्र पटवा 2003 से चुनाव लड़कर क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। जिससे उन्हें अब स्थानीय नेता ही माना जाने लगा है। लेकिन वहीं कांग्रेस प्रत्याशी राजकुमार पटेल भोजपुर के मतदाताओं के लिए अभी एकदम नया चेहरा हैं। जिससे जनता उन्हें बाहरी प्रत्याशी ही मान रही है। जबकि वे स्थानीय कद्दावर नेता है,भोजपुर क्षेत्र की सीमा में से सटा उनका गांव है। हालांकि पटेल का नगर सहित आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में व्यक्तिगत जनसंपर्क जरूर है। लेकिन वह उन्हें जिताने के लिए ना काफी है।
पटेल के कारण एकजुट वोटबैंक-
इधर इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता की पटेल के मैदान में आने से राजनीतिक समीकरण भी बदले हैं। उन्होंने मुकाबले को रोचक और कड़ा बना दिया है। इसका कारण धाकड़,नागर आए किरार समाज के साथ ही मुसलमानों का पटेल के प्रति झुकाव होना माना जा रहा है। पिछले दो चुनाव के परिणामों को देखें तो मुस्लिम वर्ग का वोट पचौरी को नहीं मिला था। लेकिन ऐसे कयास लगाए जा रहे हैं कि इस बार इस वर्ग का अधिकांश वोट पटेल को मिल सकता है।